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अपनी कालजयी रचनाओं की वजह से,आज भी स्व जानकी वल्लभ शास्त्री जी करोड़ों साहित्य प्रेमियों के ह्रदय में बसते हैं .'हमारी विभूतियाँ 'स्तम्भ में शास्त्री जी

अपनी कालजयी रचनाओं की वजह से,आज भी स्व जानकी वल्लभ शास्त्री जी करोड़ों साहित्य प्रेमियों के ह्रदय में बसते हैं .'हमारी विभूतियाँ 'स्तम्भ में शास्त्री जी के अनेक अनछुए पहलुओं  से आपको परिचित कराएँगे .

पद्मश्री  सम्मान से विभूषित स्व जानकी वल्लभ शास्त्री का जन्म 5 फरवरी, 1916 में बिहार के मेगरा गांव (गया ,बिहार )में हुआ था। उनके पिता का देहांत जानकी वल्लभ जी के बचपन के समय में ही हो गया था। उन्हें पशुओं का पालन करना बहुत ही पसंद था। उनके यहां दर्जनों, गाय, सांड, बछड़े तथा बिल्ली और कुत्ते थे। पशुओं से उन्हें अत्यंत प्यार था ,उनका दाना पानी जुटाने में उनका परेशान रहना स्वाभाविक था। क्योंकि उनके पास ज्यादा धन नहीं था। उनकी पत्नी का नाम छाया देवी है।


जानकी वल्लभ शास्त्री ने11 वर्ष की वय में ही उन्होंने 1927 में बिहार-उड़ीसा की सरकारी संस्कृत परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। 16 वर्ष की आयु में शास्त्री की उपाधि  प्राप्त करने के बाद वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय चले गए। वे वहां 1932 से 1938 तक रहे। उनकी विधिवत् शिक्षा-दीक्षा तो संस्कृत में ही हुई थी, लेकिन अपनी मेहनत से उन्होंने अंग्रेज़ी और बांग्ला का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। छोटी उम्र में ही अपने पिता के देहांत कारण वे आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे थे। आर्थिक समस्याओं के निवारण के लिए उन्होंने बीच-बीच में नौकरी भी की थी। 1936 में लाहौर में उन्होंने अध्यापन कार्य किया। 1937-38 में रायगढ़ (मध्य प्रदेश) में राजकवि भी रहे। 1934-35 में इन्होंने साहित्याचार्य की उपाधि स्वर्णपदक के साथ अर्जित की और पूर्वबंग सारस्वत समाज ढाका के द्वारा साहित्यरत्न घोषित किए गए। 1940-41 में रायगढ़ छोड़कर मुजफ्फरपुर आने पर इन्होंने वेदांतशास्त्री और वेदांताचार्य की परीक्षाएं बिहार भर में प्रथम आकर पास की। 1944 से 1952 तक गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज में साहित्य-विभाग में प्राध्यापक, दोबारा अध्यक्ष रहे। 1953 से 1978 तक बिहार विश्वविद्यालय के रामदयालु सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर में हिन्दी के प्राध्यापक रहकर 1979-80 में अवकाश ग्रहण किया।

जानकी वल्लभ शास्त्री का पहला गीत ‘किसने बांसुरी बजाई’ काफी लोकप्रिय हुआ। प्रो. नलिन विमोचन शर्मा ने उन्हें जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी के बाद पांचवां छायावादी कवि कहा है, लेकिन सचाई यह है कि वे भारतेंदु और श्रीधर पाठक द्वारा प्रवर्तित और विकसित उस स्वच्छंद धारा के आखिरी कवि थे, जो छायावादी अतिशय लाक्षणिकता और भावात्मक रहस्यात्मकता से मुक्त थी। शास्त्रीजी ने कहानियाँ, काव्य-नाटक, आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास और आलोचना भी लिखी है। उनका उपन्यास ‘कालिदास’ भी बृहत प्रसिद्ध हुआ था। उन्होंने 16 साल की आयु  में ही लिखना आरंभ किया था। उनकी पहली रचना ‘गोविन्दगानम्‌’ है जिसकी पदशय्या को कवि जयदेव से अबोध स्पर्द्धा की विपरिणति मानते हैं।


‘रूप-अरूप’ और ‘तीन-तरंग’ के गीतों के बाद ‘कालन’, ‘अपर्णा’, ‘लीलाकमल’ और ‘बांसों का झुरमुट’-  उनके चार कथा संग्रह प्रकाशित हुए। उनके द्वारा लिखित चार समीक्षात्मक ग्रंथ-’साहित्यदर्शन’, ‘चिंताधारा,’ ‘त्रयी’ , और ‘प्राच्य साहित्य’ हिन्दी में भावात्मक समीक्षा के सर्जनात्मक रूप के कारण समादृत हुआ।1945-50 तक इनके चार गीति काव्य प्रकाशित हुए-’शिप्रा’, ‘अवन्तिका’,’ मेघगीत’ और ‘संगम’। कथाकाव्य ‘गाथा’ का प्रकाशन सामाजिक दृष्टिकोण से क्रांतिकारी है। इन्होंने एक महाकाव्य ‘राधा’ की रचना की जो सन्‌ 1971 में प्रकाशित हुई। ’हंस बलाका’ गद्य महाकाव्य की इनकी रचना हिन्दी जगत् की एक अमूल्य निधि है। छायावादोत्तर काल में प्रकाशित पत्र-साहित्य में व्यक्तिगत पत्रों के स्वतंत्र संकलन के अंतर्गत शास्त्री द्वारा संपादित ‘निराला के पत्र’ (1971) उल्लेखनीय है। इनकी प्रमुख कृतियां संस्कृत में- ’काकली’, ‘बंदीमंदिरम’, ‘लीलापद्‌मम्‌’, हिन्दी में ‘रूप-अरूप’, ‘कानन’, ‘अपर्णा’, ‘साहित्यदर्शन’, ‘गाथा’, ‘तीर-तरंग’, ‘शिप्रा’, ‘अवन्तिका’, ‘मेघगीत’, ‘चिंताधारा’, ‘प्राच्यसाहित्य’, ‘त्रयी’, ‘पाषाणी’, ‘तमसा’, ‘एक किरण सौ झाइयां’, ‘स्मृति के वातायन’, ‘मन की बात’, ‘हंस बलाका’, ‘राधा’ आदि प्रमुख हैं। 


उन्हें राजेंद्र शिखर पुरस्कार, भारत भारती पुरस्कार, शिव सहाय पूजन पुरस्कार, शास्त्री की उपाधि सहित कई पुरस्कार मिले। श्री जानकी वल्लभ शास्त्री की मृत्यु 98 वर्ष की आयु में 7 अप्रैल, 2011 को बिहार के मुजफ्फरनगर जिले में हुई ।

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